hatha pradipika
कुण्डलिनी का महत्त्व
सशैलवनधात्रीणां यथा धारोऽहिनायक: । सर्वेषां योगतन्त्राणां तथा धारो हि कुण्डली ।। 1 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार शेषनाग को वन पर्वतों सहित पूरी पृथ्वी का आधार माना जाता है । ठीक उसी प्रकार कुण्डलिनी शक्ति को सभी योग व तन्त्रों का आधार माना जाता है ।
सुप्ता गुरुप्रसादेन यदा जागर्ति कुण्डली । तदा सर्वाणि पद्मानि भिद्यन्ते ग्रन्थयोऽपि च ।। 2 ।।
भावार्थ :- गुरु की विशेष कृपा या आशीर्वाद से जब साधक की सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति में चेतना आ जाती है अर्थात वह जाग्रत हो जाती है । तब साधक के सभी चक्र व ग्रन्थियाँ भी खुल जाती हैं । अर्थात उनमें भी ऊर्जा का संचार हो जाता है ।
प्राणस्य शून्यपदवी तदा राजपथायते । तदा चित्तं निरालम्बं तदा कालस्य वञ्चनम् ।। 3 ।।
भावार्थ :- सुषुम्ना नाड़ी प्राण के लिए शून्य अर्थात सुख को देने वाली व प्राण के प्रवाह का मुख्य मार्ग बन जाती है । तब साधक का चित्त आश्रय रहित हो जाता है अर्थात उसमें किसी भी प्रकार की वृत्ति शेष नहीं रहती । और तब न ही उसे मृत्यु का भय रहता है ।
ब्रह्मनाड़ी / सुषुम्ना नाड़ी के पर्यायवाची शब्द
सुषुम्णा शून्यपदवी ब्रह्मरन्ध्र महापथ: । श्मशानं शाम्भवी मध्यमार्गर्श्चेत्येकवाचका: ।। 4 ।।
भावार्थ :- सुषुम्ना, शून्यपदवी, ब्रह्मरन्ध्र, महापथ, श्मशान, शाम्भवी और मध्यमार्ग यह सभी ब्रह्मनाड़ी / सुषुम्ना नाड़ी के ही पर्यायवाची शब्द हैं ।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमीश्वरीम् । ब्रह्मद्वारमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत् ।। 5 ।।
भावार्थ :- इसलिए सुषुम्ना नाड़ी के मुख पर सोई हुई कुण्डलिनी को जगाने के लिए साधक को पूर्ण प्रयास के साथ मुद्राओं का अभ्यास करना चाहिए ।
दस मुद्राएं
महामुद्रा महाबन्धो महावेधश्च खेचरी । उड्डीयान मूलबन्धस्ततो जालन्धरा भिध: ।। 6 ।। करणी विपरीताख्या वज्रोली शक्ति चालनम् । इदम् हि मुद्रा दशकं जरामरणनाशनम् ।। 7 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, उड्डीयान बन्ध, मूलबन्ध, जालन्धर बन्ध, विपरीतकरणी, वज्रोली व शक्तिचालन ये दस मुद्राएं हैं । इन मुद्राओं का अभ्यास करने से साधक के सभी रोग नष्ट होते हैं और साथ ही मृत्यु के लिए उत्तरदायी सभी कारण भी नष्ट हो जाते हैं ।
मुद्राओं की उपयोगिता
आदिनाथोदितं दिव्यमष्टैश्वर्यप्रदायकम् । वल्लभं सर्वसिद्धानां दुर्लभं मरुतामपि ।। 8 ।।
भावार्थ :- आदिनाथ अर्थात भगवान शिव द्वारा उपदेशित यह दस प्रकार की मुद्राएं साधक को आठ प्रकार की दिव्य और ऐश्वर्य से युक्त सिद्धि प्रदान करवाती हैं । यह मुद्राएं सभी सिद्ध योगियों को प्रिय हैं तथा यह देवताओं को भी सहजता से प्राप्त नहीं होती हैं अर्थात उनके लिए यह दुर्लभ हैं ।
मुद्राओं की गोपनीयता
गोपनीयं प्रयत्नेन यथा रत्नकरण्डकम् । कस्यचिन्नैव वक्तव्यं कुलस्त्रीसुरतं यथा ।। 9 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार बहुमूल्य रत्नों ( हीरे- मोती ) से भरी पिटारी को छुपाकर रखा जाता है । ठीक उसी प्रकार इन मुद्राओं को भी पूरी तरह से गुप्त रखना चाहिए । अनावश्य लोगों के सामने इनकी चर्चा नहीं करनी चाहिए । जैसे अच्छे कुल अर्थात घर की नारी सम्भोग आदि की चर्चा किसी के साथ नहीं करती । विशेष :- यहाँ पर मुद्राओं को गुप्त रखने का अभिप्राय यह बिलकुल भी नहीं है कि हमें मुद्राओं का ज्ञान किसी को भी नहीं देना चाहिए । यहाँ पर गुप्त रखने का अर्थ है कि इन मुद्राओं का ज्ञान कभी भी किसी अयोग्य, दुष्ट या गलत व्यक्ति को नहीं देना चाहिए । क्योंकि अयोग्य व्यक्ति इस अमूल्य ज्ञान के महत्त्व को नहीं समझता । जिससे वह इसका उपहास ( मजाक ) उड़ाने का ही काम करेगा । और यदि कोई दुष्ट व गलत व्यक्ति को इसका ज्ञान होता है तो वह इसका दुरुपयोग करने का काम करेगा । इसलिए इन अत्यंत उपयोगी व दिव्य शक्तियों को प्रदान कराने वाली मुद्राओं को गुप्त रखना चाहिए । पहले इस बात का पता लगाना चाहिए कि जिस व्यक्ति को हम यह ज्ञान देने जा रहे हैं । वह इसका पात्र है या नहीं ? जिस प्रकार श्लोक में अच्छे कुल की स्त्री का उदाहरण भी दिया गया है कि वह सम्भोग आदि गुप्त बातों की चर्चा किसी के सामने नहीं करती हैं । ऐसा करने से उनकी छवि व सम्मान दोनों की हानि होती है । तभी इन मुद्राओं को अत्यंत गोपनीय रखने की बात कही है ।
महामुद्रा वर्णन
पादमूलेन वामेन योनिं सम्पीड्य दक्षिणम् । प्रसारितं पादं कृत्वां कराभ्यां धारयेद् दृढम् ।। 10 ।। कण्ठे बन्धं समारोप्य धारयेद्वायुमूर्ध्वत: । यथा दण्डहत: सर्पो दण्डाकार: प्रजायते ।। 11 ।। ऋज्वीभूता तथा शक्ति: कुण्डली सहसा भवेत् । तदा सा मरणावस्था जायते द्विपुटाश्रया ।। 12 ।।
भावार्थ :- अपने बायें पैर की एड़ी से सीवनी प्रदेश ( योनि ) को दबाकर दूसरे अर्थात दायें पैर को भूमि पर सामने की तरफ फैलाकर उसे दोनों हाथों से मजबूती के साथ पकड़े । अब प्राणवायु को अन्दर भरकर जालन्धर बन्ध लगाएं । जिस प्रकार सर्प डण्डे की चोट खाकर डण्डे की तरह ही सीधा हो जाता है । ठीक उसी प्रकार महामुद्रा करने से कुण्डली शक्ति भी सीधी हो जाती है । ऐसा होने से दोनों नासिकाओं से आने- जाने वाली प्राणवायु की क्रियाशीलता लुप्तप्राय हो जाती है ।
तत: शनै: शनैरेव रेचयेन्न तु वेगत: । इयं खलु महामुद्रा महासिद्धै: प्रदर्शिता ।। 13 ।।
भावार्थ :- उसके बाद अर्थात महामुद्रा को करने के बाद जालन्धर बन्ध को हटाकर श्वास को धीरे- धीरे बाहर छोड़ना चाहिए । श्वास को छोड़ने में कभी भी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए । महासिद्ध योगियों ने इसे महामुद्रा कहते हुए इसका वर्णन किया है ।
विद्वानों द्वारा महामुद्रा की प्रशंसा
महाक्लेशादयो दोषा: क्षीयन्ते मरणादय: । महामुद्रां च तेनैव वदन्ति विबुधोत्तमा: ।। 14 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा करने से महक्लेश रूपी सभी दोष तथा मृत्यु रूपी दुःख भी नष्ट हो जाते हैं । इसीलिए विद्वानों में भी जो श्रेष्ठ हैं उन्होंने इस मुद्रा को महामुद्रा कहा है ।
चन्द्राङ्गे तु समभ्यस्य सूर्याङ्गे पुनरभ्यसेत् । यावतुल्या भवेत् संख्या ततो मुद्रां विसर्जयेत् ।। 15 ।।
भावार्थ :- बायीं ओर से ( बायें पैर से ) महामुद्रा का अभ्यास करने के बाद दोबारा इसका दायीं ओर से ( दायें पैर से ) अभ्यास करें । जब दोनों पैरों से इसका एक समान अभ्यास हो जाए तब महामुद्रा के अभ्यास को समाप्त कर दें ।
महामुद्रा के लाभ
न हि पथ्यमपथ्यं वा रसा: सर्वेऽपि नीरसा: । अपि भुक्तं विषं घोरं पीयूषमिव जीर्यति ।। 16 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा का अभ्यास करने से साधक की जठराग्नि इतनी प्रबल हो जाती है कि उसके लिए किसी भी प्रकार का भोजन पचने अथवा न पचने वाला नहीं रहता । वह सभी प्रकार के आहार को आसानी से पचा लेता है । बिना रस वाला आहार भी उसके लिए रसयुक्त हो जाता है । इसके अलावा वह भयानक जहर को भी इस प्रकार पचा लेता है जैसे कि वह अमृत हो ।
क्षयकुष्ठगुदावर्तगुल्माजीर्ण पुरोगमा: । तस्य दोषा: क्षयं यान्ति महामुद्रां तु योऽभ्यसेत् ।। 17 ।।
भावार्थ :- महामुद्रा के अभ्यास से साधक के क्षय ( तपेदिक या टीबी ) कुष्ठ ( चर्म रोग ) कब्ज, गुल्म ( वायु गोला ) अजीर्ण ( अपच ) व इनसे सम्बंधित अन्य कई प्रकार के रोग भी समाप्त हो जाते हैं ।
महामुद्रा की गोपनीयता
कथितेयं महामुद्रा महासिद्धिकरी नृणाम् । गोपनीया प्रयत्नेन न देया यस्य कस्यचित् ।। 18 ।।
भावार्थ :- मनुष्यों को असंख्य सिद्धियाँ प्रदान कराने वाली इस महामुद्रा को पूरे प्रयास के साथ गुप्त रखना चाहिए । इसका वर्णन किसी को भी नहीं करना चाहिए अर्थात चाहे जिसको भी इसका वर्णन नहीं करना चाहिए । इसे गुप्त ही रखना चाहिए ।
महाबन्ध वर्णन
पाषि्र्ण वामस्य पादस्य योनिस्थाने नियोजयेत् । वामोरूपरि संस्थाप्य दक्षिणं चरणं तथा ।। 19 ।। पूरयित्वा ततो वायुं हृदये चिबुकं दृढम् । निष्पीड्य योनिमाकुंच्य मनोमध्ये नियोजयेत् ।। 20 ।।
भावार्थ :- बायें पैर की एड़ी को सीवनी प्रदेश ( योनि स्थान ) पर अच्छे से टिका दें । दायें पैर को बायीं जंघा पर रखें । अब प्राणवायु को शरीर के अन्दर भरकर ठुड्ढी को मजबूती के साथ छाती पर लगाएं । ( जालन्धर बन्ध लगाएं ) साथ ही योनिस्थान का आकुंचन करें अर्थात मूलबन्ध का प्रयोग करते हुए मन को सुषुम्ना नाड़ी में लगाना चाहिए ।
धारयित्वा यथाशक्ति रेचयेदनिलं शनै: । सव्याङ्गे तु समभ्यस्य दक्षाङ्गे पुनरभ्यसेत् ।। 21 ।।
भावार्थ :- जालन्धर बन्ध को हटाते हुए शरीर के अन्दर रोकी हुई प्राणवायु को धीरे- धीरे बाहर निकाले । इस प्रकार बायीं तरफ से इसका अभ्यास करने के बाद पुनः दायीं ओर से भी इसका उसी प्रकार से अभ्यास करें ।
जालन्धर बन्ध के विषय में सुझाव
मतमत्र तु केषाञ्चित् कण्ठबन्धं विवर्जयेत् । राजदन्तस्थ जिह्वाया बन्ध: शस्तो भवेदिति ।। 22 ।।
भावार्थ :- यहाँ पर कुछ विद्वानों का यह मानना है कि महाबन्ध का अभ्यास करते हुए इसमें जालन्धर बन्ध को न लगाकर उसकी जगह पर जिह्वा ( जीभ ) को मुख्य दाँतो अर्थात आगे वाले दाँतो के साथ लगाना ज्यादा उचित है ।
महाबन्ध से महासिद्धि की प्राप्ति
अयन्तु सर्वनाडीनामूर्ध्वं गतिनिरोधक: । अयं खलु महाबन्धो महासिद्धि प्रदायक: ।। 23 ।।
भावार्थ :- यह महाबन्ध सभी नाड़ियों की ऊपर की ओर प्रवाहित होने वाली गति को रोकता है । जिससे निश्चित रूप से यह महाबन्ध साधक को महान सिद्धियाँ प्रदान करवाने वाला होता है ।
महाबन्ध का फल
कालपाशमहाबन्धविमोचनविचक्षण: । त्रिवेणीसङ्गमं धत्ते केदारं प्रापयेन्मन: ।। 24 ।।
भावार्थ :- यह महाबन्ध साधक को मृत्यु रूपी बन्धन से मुक्ति प्रदान करवाने वाला है । साथ ही यह इडा, पिङ्गला व सुषुम्ना नाड़ियों का संगम करवाता है और मन को शिव स्थान अर्थात आज्ञा चक्र में स्थिर करता है ।
महावेध का महत्त्व
रूपलावण्य सम्पन्ना यथा स्त्री पुरुषं बिना । महामुद्रामहाबन्धौ निष्फलौ वेधवर्जितौ ।। 25 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार पुरुष के बिना सुन्दर स्त्री पूर्ण नहीं होती अर्थात उसका कोई महत्त्व नहीं होता । ठीक उसी प्रकार महावेध मुद्रा की साधना के बिना महामुद्रा व महाबन्ध मुद्रा की साधना पूर्ण नहीं होती अर्थात महावेध मुद्रा के बिना महामुद्रा व महाबन्ध का कोई महत्त्व नहीं होता ।
महावेध मुद्रा विधि
महावेधस्थितो योगी कृत्वा पूरकमेकधी: । वायूनां गतिमावृत्य निभृतं कण्ठमुद्रया ।। 26 ।। समहस्तयुगो भूमौ स्फिचौ संताडयेच्छनै: पुटद्वयमतिक्रम्य वायु: स्फुरति मध्यग: ।। 27 ।। सोम सूर्याग्निसम्बन्धो जायते चामृताय वै । मृतावस्था समुत्पन्ना ततो वायुं विरेचयेत् ।। 28 ।।
भावार्थ :- योगी साधक को पूरी तरह से एकाग्रचित्त होकर, महावेध मुद्रा की स्थिति लेकर, ( महाबन्ध वाली अवस्था ) श्वास- प्रश्वास की गति को रोककर, वायु को शरीर के अन्दर भरकर उसे अन्दर ही रोकते हुए जालन्धर बन्ध का प्रयोग करना चाहिए । अब अपने दोनों हाथों को जमीन पर टिकाकर दोनों नितम्बों को ऊपर उठाकर वापिस जमीन पर पटकना चाहिए । इस प्रकार करने से प्राण दोनों नासिका छिद्रों ( इडा व पिङ्गला ) को छोड़कर मध्यमार्ग अर्थात सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाता है । इस प्रकार इडा नाड़ी ( चन्द्र नाड़ी ) व पिङ्गला नाड़ी ( सूर्य नाड़ी ) परस्पर सुषुम्ना नाड़ी में जाकर मिल जाती हैं । जिससे साधक को अमरता की प्राप्ति होती है । साथ ही साधक का प्राण पर पूर्ण अधिकार हो जाता है । जिससे वह मृत्यु की अवस्था के समान अपने प्राण को नियंत्रित कर सकता है । इसके बाद साधक को उस प्राणवायु का रेचन अर्थात उसे बाहर निकालना चाहिए । यही महावेध मुद्रा कहलाती है ।
महावेध का फल
महावेधोऽयमभ्यासान्महासिद्धिप्रदायक: । वलीपलितवेपध्न: सेव्यते साधकोत्तमै: ।। 29 ।।
भावार्थ :- महावेध मुद्रा का अभ्यास करने से साधक को बहुत बड़ी- बड़ी सिद्धियों की प्राप्ति होती है । साथ ही कभी भी उसके शरीर में झुर्रियां नहीं पड़ती, बाल सफेद नहीं होते व शरीर की कम्पन भी दूर होती है । इसीलिए योग्य अर्थात उत्तम साधक इस मुद्रा का अभ्यास करते हैं ।
एतत् त्रयं महागुह्यं जरामृत्युविनाशमम् । वह्निवृद्धिकरं चैव ह्यणिमादिगुणप्रदम् ।। 30 ।।
भावार्थ :- महाबन्ध, महामुद्रा और महावेध मुद्राओं को पूरी तरह से गुप्त रखना चाहिए । इनका अभ्यास बुढ़ापा व मृत्यु को दूर करता है । जठराग्नि को मजबूत करती हैं । साथ ही अणिमा आदि सिद्धियाँ प्रदान करती हैं ।
अष्टधा क्रियते चैव यामे यामे दिने दिने । पुण्यसंभारसंधायि पापौघभिदुरं सदा । सम्यक् शिक्षावतामेवं स्वल्पं प्रथमसाधनम् ।। 31 ।।
भावार्थ :- साधक को इन मुद्राओं का अभ्यास दिनभर में आठ बार करना चाहिए । यह साधकों के सभी प्रकार के पाप नष्ट करके उसे पुण्य प्रदान करने वाली होती हैं । अच्छे व बुद्धिमान साधकों को शुरुआती समय में इनका अभ्यास कम मात्रा में ( थोड़े समय तक ) करना चाहिए ।
खेचरी मुद्रा वर्णन
कपालकुहरे जिह्वा प्रविष्टा विपरीतगा । भ्रुवोरन्तर्गता दृष्टिर्मुद्रा भवति खेचरी ।। 32 ।।
भावार्थ :- अपनी जिह्वा को उल्टी करके गले में स्थित तालु प्रदेश के छिद्र में प्रविष्ट ( डाल ) कराकर दृष्टि को भ्रूमध्य ( दोनों भौहों ) के बीच में स्थिर करना खेचरी मुद्रा होती है ।।
छेदनचालनदोहै: कलां क्रमेण वर्धयेत्तावत् । सा यावद्भ्रूमध्यं स्पृशति तदा खेचरी सिद्धि: ।। 33 ।।
भावार्थ :- अपनी जीभ को काटना, उसको आगे- पीछे चलाना और उसका दोहन अर्थात् उसे पकड़ कर खीचना आदि क्रियाओं का अभ्यास तब तक करते रहना चाहिए जब तक कि जीभ दोनों भौहों के बीच के भाग को न छू ले । ऐसा करने से ही खेचरी मुद्रा सिद्ध होती है ।
स्नुहीपत्रनिभं शस्त्रं सुतीक्ष्णं स्निग्धनिर्मलम् । समादाय ततस्तेन रोममात्रं समुच्छिनेत् ।। 34 ।। तत: सैन्धवपथ्याभ्यां चूर्णिताभ्यां प्रघर्षयेत् । पुनः सप्तदिने प्राप्ते रोम मात्रं समुच्छिनेत् ।। 35 ।। एवं क्रमेण षण्मासं नित्ययुक्त:समाचरेत् । षण्मासाद्रसनामूलशिराबन्ध: पर्णश्यति ।। 36 ।।
भावार्थ :- स्नुही ( थुअर ) के पत्ते समान तेज धारवाला, चिकना, कीटाणु रहित अर्थात पूर्ण स्वच्छ शस्त्र ( हथियार ) लेकर, जीभ के मूल भाग ( जीभ को उल्टा करने पर जो पतली खाल दिखाई देती है ) को रोमछिद्र के बाल की मोटाई जितने भाग को काटें । इसके बाद सेंधा नमक व हरड़ के चूर्ण का अपनी जीभ के कटे हुए भाग पर घर्षण करें और सात दिन के बाद एक बार फिर से उस हिस्से को बाल के बराबर काटें । ऊपर वर्णित विधि का निरन्तर छह महीने तक अभ्यास करने से जीभ के मूल में स्थित बन्ध ( जिस भाग को प्रति सप्ताह काटा गया है ) पूरी तरह से हट जाता है । जिससे जीभ के संचालन में सरलता हो जाती है ।
व्योमचक्र
कलां पराङ्मुखीं कृत्वा त्रिपथे परियोजयेत् । सा भवेत् खेचरी मुद्रा व्योमचक्रं तदुच्यते ।। 37 ।।
भावार्थ :- अपनी जीभ को उल्टी करके तालु प्रदेश के मूल में स्थित छिद्र ( जहाँ पर तीनों नाडियों का संगम होता है ) में लगाने से खेचरी मुद्रा कहलाती है । तालु प्रदेश के मूल भाग में स्थित वह छिद्र व्योमचक्र कहलाता है । विशेष :- तालु में स्थित छिद्र को व्योमचक्र कहते हैं । यह परीक्षा की दृष्टि से उपयोगी है ।
खेचरी मुद्रा के लाभ
रसनामूर्ध्वगां कृत्वा क्षणार्धमपि तिष्ठति । विषैर्विमुच्यते योगी व्याधिमृत्युजरादिभि: ।। 38 ।।
भावार्थ :- जो साधक अपनी जीभ को ऊपर ले जाकर दोनों भौहों के बीच में आधे क्षण भी लगाकर रखता है तो वह अनेक प्रकार के विषों, रोगों, मृत्यु व बुढ़ापे आदि से मुक्त हो जाता है । यह सभी बाधाएँ उसे प्रभावित नहीं कर पाती हैं ।
न रोगो मरणं तन्द्रा न निद्रा न क्षुधा तृषा । न च मूर्च्छा भवेत्तस्य यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।। 39 ।।
भावार्थ :- खेचरी मुद्रा का अभ्यास करने वाले साधक को न तो कभी कोई रोग होता है, न उसकी मृत्यु होती है, न उसमें मानसिक शिथिलता आती है, न उसे नींद बाधित करती है, न उसे कभी भूख- प्यास परेशान करती है और न ही उसे कभी बेहोशी आती है ।
पीड्यते न स रोगेण लिप्यते न च कर्मणा । बाध्यते न स कालेन यो मुद्रां वेत्ति खेचरीम् ।। 40 ।।
भावार्थ :- खेचरी को जानने वाला साधक कभी भी रोगों से पीड़ित नहीं होता । न वह कर्मों के बन्धन में फंसता है और न ही उसे कभी मृत्यु अपने वश में कर पाती है ।
चित्तं चरति खे यस्माज्जिह्वा चरति खे गता । तेनैषा खेचरी नाम मुद्रा सिद्धैर्निरूपिता ।। 41 ।।
भावार्थ :- इस खेचरी मुद्रा का अभ्यास करने से साधक का चित्त हृदय आकाश में स्थित हो जाता है अर्थात् वह शून्य भाव में रहता है । जीभ व्योमचक्र में स्थित हो जाती है । इसलिए सिद्ध योगी इसे खेचरी मुद्रा कहते हैं ।
बिन्दु ( वीर्य ) पर पूर्ण नियन्त्रण
खेचर्या मुद्रितं येन विवरं लम्बिकोर्ध्वत: । न तस्य क्षरते बिन्दु: कामिन्याश्लेषितस्य च ।। 42 ।। चलितोऽपि यदा बिन्दु: सम्प्राप्तो योनिमण्डलम् । व्रजत्यूर्ध्वं हृत: शक्तया निबद्धो योनिमुद्रया ।। 43 ।।
भावार्थ :- जिस भी साधक ने खेचरी मुद्रा के अभ्यास द्वारा अपने तालु प्रदेश में स्थित व्योमचक्र के छिद्र को बन्द कर दिया है । उसका बिन्दु अर्थात् वीर्य अत्यन्त कामुक ( काम वासना से परिपूर्ण ) स्त्री के आलिङ्गन करने पर भी स्खलित ( बाहर / नष्ट ) नहीं होता । और यदि वह वीर्य स्खलित होकर स्त्री की योनि में पहुँच भी जाए तो भी साधक द्वारा योनिमुद्रा की शक्ति से उसे पुनः ऊपर खींच लिया जाता है ।
ऊर्ध्वजिह्व: स्थिरो भूत्वा सोमपानं करोति य: । मासार्धेन न सन्देहो मृत्युं जयति योगवित् ।। 44 ।।
भावार्थ :- जो भी योग साधक अपनी जीभ को ऊपर की ओर उठाकर स्वयं को स्थिर करते हुए ऊपर ( व्योमचक्र ) से टपकते हुए अमृत का पान ( पीता ) करता है । वह मात्र पन्द्रह दिनों में ही मृत्यु के ऊपर विजय प्राप्त कर लेता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है ।
नित्यं सोमकला पूर्णं शरीरं यस्य योगिन: । तक्षकेणापि दष्टस्य विषं तस्य न सर्पति ।। 45 ।।
भावार्थ :- जिस योगी साधक का शरीर सदैव उस सोमरूपी अमृत से भरा रहता है । उसका शरीर भयंकर विष के प्रभाव से भी रहित हो जाता है अर्थात् अत्यंत जहरीले सर्प द्वारा काटने पर भी उसके शरीर में जहर नहीं फैलता ।
इन्धनानि यथा वह्निस्तैलवर्ति च दीपक: । तथा सोमकलापूर्णं देही देहं न मुञ्चति ।। 46 ।।
भावार्थ :- जिस तरह अग्नि इन्धन को छोड़ती, दीपक की लौ तेल से भीगी बत्ती को नहीं छोड़ता । ठीक उसी प्रकार सोमरूपी अमृत से भरे हुए शरीर को आत्मा नहीं छोड़ती अर्थात् वह साधक मृत्यु को जीत लेता है ।
गोमांसं भक्षयेन्नित्यं पिबेदमरवारुणीम् । कुलीनं तमहं मन्ये इतरे कुलघातका: ।। 47 ।। गोशब्देनोदिता जिह्वा तत्प्रवेशो हि तालुनि । गोमांस भक्षणं तत्तु महापातकनाशनम् ।। 48 ।।
भावार्थ :- जो साधक प्रतिदिन गोमांस को खाता है और दैवीसुरा अर्थात अमृत को पीता है । उसे मैं अच्छे कुल का मानता हूँ और अन्य सभी तो कुल का नाश करने वाले होते हैं । यहाँ पर गो शब्द का अर्थ है जीभ और तालु प्रदेश में उसका प्रवेश करने का अर्थ भक्षण ( खाना ) हैं । यह गोमांस भक्षण अर्थात् जिह्वा को तालु प्रदेश में प्रवेश करवाने से साधक के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं । यह सभी पापों का नाश करता है । विशेष :- यहाँ इस श्लोक में गोमांस भक्षण शब्द का प्रयोग किया गया है । जिसमें गो शब्द का अर्थ जीभ का पर्यायवाची है और उस जीभ का तालु प्रदेश में प्रवेश करना मास को खाने का पर्यायवाची है । इसका अर्थ गाय का मास खाना बिलकुल भी नहीं है । गाय के मास को योग शास्त्र में निषेध तथा घोर निन्दनीय बताया है ।
जिह्वाप्रवेशसम्भूतवह्निनोत्पादित: खलु । चन्द्रात् स्त्रवति य: सार: सा स्यादमरवारुणी ।। 49 ।।
भावार्थ :- जब साधक खेचरी मुद्रा का अभ्यास करते हुए अपनी जीभ को तालु प्रदेश में प्रवेश करवाता है तो उससे गर्मी उत्पन्न होती है । उस गर्मी से तालु के मूल भाग में से एक प्रकार का रस निकलता है । जिसे अमर वारुणी अर्थात् मृत्यु पर विजय प्राप्त करवाने वाला अमृत कहा गया है ।
चुम्बन्ती यदि लम्बिकाग्रमनिशं जिह्वारसस्यन्दिनी सक्षारा कटुकाम्लदुग्धसदृशी मध्वाज्यतुल्या तथा । व्याधीनां हरणं जरान्तकरणं शस्त्रागमोदीरणं तस्य स्यादमरत्वमष्टगुणितं सिद्धाङ्गनाकर्षणम् ।। 50 ।।
भावार्थ :- हमारी जीभ नमकीन, कड़वे, खट्टे, दूध,घी व शहद के समान रस को अनुभव करने वाली होती है । यदि साधक अपनी जीभ के अगले हिस्से ( अग्रभाग ) से तालु प्रदेश को स्पर्श करवाकर वहाँ से बहने वाले अमृत रस का पान ( पीता ) करता रहता है तो उसके सभी रोग नष्ट हो जाते हैं । बुढापा दूर हो जाता है तथा उसे अनेक शास्त्रों का ज्ञान अपने आप ही प्राप्त हो जाता है । इससे साधक की आयु आठ गुणा तक बढ़ती है और सभी सिद्धजनों की स्त्रियाँ उसकी तरफ आकर्षित होती हैं ।
ऊर्ध्व: षोडशपत्रमध्यगलितं प्राणादवाप्तं हठात् उर्ध्वास्यो रसनां नियम्य विवरे शक्तिं परां चिन्तयन् । उत्कल्लोलकलाजलं च विमलं धारामयं य: पिबेत् निर्व्याधि: स मृणालकोमलवपुर्योगी चिरं जीवति ।। 51 ।।
भावार्थ :- जो भी योग साधक अपनी जीभ को तालु प्रदेश के मूल में ऊपर से नीचे तक स्थापित करके उस परम शक्ति का ध्यान करते हुए उस सोलह पंखुड़ियों वाले पद्म से निकलने वाले चन्द्र रस की निर्मल व गतिशील धारा को पीता है । वह साधक रोग मुक्त व कमल की नाल की तरह अत्यंत कोमल होकर बहुत लम्बे समय तक जीवित रहता है ।
यत्प्रालेयं प्रहितसुषिरं मेरु मूर्धान्तरस्थम् तस्मिंस्तत्त्वं प्रवदति सुधीस्तन्मुखं निम्नगानाम् । चन्द्रात् सार: स्त्रवति वपुषस्तेन मृत्युर्नराणाम् तद् बध्नीयात् सुकरणमथो नान्यथा कार्यसिद्धि: ।। 52 ।।
भावार्थ :- मेरुदण्ड व मस्तिष्क के बीच में जो छिद्र है । उसमें ही इस पूरे जीवन का सार बहता है । यही वह स्थान है जहाँ पर इडा, पिङ्गला व सुषुम्ना नाड़ियों का मिलन होता है । इसी स्थान से चन्द्र से प्रवाहित होने वाला रस टपकता है । इस अमृत रस के नष्ट होने से ही मनुष्य की मृत्यु होती है । उत्तम साधकों को इस अमृत रस को विधिपूर्वक शरीर के अन्दर रोकना चाहिए । इसको सुरक्षित किये बिना साधक को किसी भी कार्य में सिद्धि प्राप्त नहीं हो सकती ।
सुषिरं ज्ञान जनकं पञ्चस्त्रोत: समन्वितम् । तिष्ठते खेचरी मुद्रा तस्मिन् शून्ये निरञ्जने ।। 53 ।।
भावार्थ :- सभी दोषों से रहित सुषुम्ना नाड़ी में चेतना के पाँच स्त्रोत हैं । जो शरीर में उर्जा को निरन्तर प्रवाहित करने का काम करते हैं । उसमें ही खेचरी विद्यमान रहती है या उसी में खेचरी मुद्रा पूर्ण होती है ।
एकं सृष्टिमयं बीजमेका मुद्रा च खेचरी । एको देवो निरालम्ब एकावस्था मनोन्मनी ।। 54 ।।
भावार्थ :- इस श्लोक में चार मुख्य पदार्थों का वर्णन किया गया है । जिनमें एक इस सृष्टि का मूल अर्थात प्रकृति है । दूसरा मुद्राओं में एक ही मुद्रा अर्थात् खेचरी मुद्रा है । तीसरा सबको आश्रय देने वाला अर्थात् एक परमेश्वर व एकमात्र अवस्था अर्थात् एक ही मनोन्मनी अवस्था है । मनोन्मनी अवस्था को ही समाधि कहा जाता है ।
उड्डीयान बन्ध
बद्धो येन सुषुम्नायां प्राण स्तूड्डीयते यत: । तस्मादुड्डीयनाख्योऽयं योगिभि: समुदाहृत: ।। 55 ।।
भावार्थ :- रुके हुए प्राण को ऊपर की ओर सुषुम्ना नाड़ी में ले जाने के कारण ही योगियों ने इस विधि को उड्डीयान बन्ध कहा है ।
उड्डीनं कुरुते यस्मादविश्रान्तं महाखग: । उड्डीयानं तदेव स्यात्तत्र बन्धोऽभिधीयते ।। 56 ।।
भावार्थ :- जिस विधि से प्राण का प्रवाह आकाश अर्थात् निरन्तर ऊपर की ओर प्रवाहित होता रहता है । उसी योग क्रिया को उड्डीयान बन्ध कहते हैं । प्राण को उर्ध्वगामी बनाने के लिए ही उड्डीयान बन्ध का अभ्यास किया जाता है ।
उड्डीयान बन्ध विधि
उदरे पश्चिमं तानं नाभेरूर्ध्वं च कारयेत् । उड्डीयानो ह्यसौ बन्धौ मृत्युमातङ्गकेसरी ।। 57 ।।
भावार्थ :- पेट के नाभि से ऊपर वाले हिस्से को अपनी रीढ़ की तरफ खींचना ही उड्डीयान बन्ध कहलाता है । यह मृत्यु रूपी हाथी के आगे सिंह अर्थात् शेर के समान है । इसके अभ्यास से साधक मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है । विशेष :- श्वास को बाहर निकाल कर पेट को खाली कर लें । इसके बाद पेट को सामर्थ्य के अनुसार कमर की ओर खीचना चाहिए । यह विधि उड्डीयान बन्ध कहलाती है ।
उड्डीयान बन्ध लाभ
उड्डीयानं तु सहजं गुरुणा कथितं यथा । अभ्यसेत् सततं यस्तु वृद्धोऽपि तरुणायते ।। 58 ।।
भावार्थ :- गुरु द्वारा बताई गई इस सहज विधि ( उड्डीयान बन्ध ) का विधिपूर्वक अभ्यास करने से बुढ़ा व्यक्ति भी पुनः युवा ( जवान ) हो जाता है ।
नाभेरूर्ध्वमधश्चापि तानं कुर्यात् प्रयत्नत: । षण्माससमभ्यसेन्मृत्युं जयत्येव न संशय: ।। 59 ।।
भावार्थ :- नियमित रूप से पूरे प्रयास के साथ नाभि के ऊपर व नीचे के भाग को पीठ की ओर खींचने से ( उड्डीयान बन्ध ) योगी साधक छः महीने में ही मृत्यु पर विजय प्राप्त कर लेता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है ।
सर्वेषामेव बन्धानामुत्तमो ह्युड्डियानक: । उड्डीयाने दृढे बद्धे मुक्ति: स्वाभाविकी भवेत् ।। 60 ।।
भावार्थ :- यह उड्डीयान बन्ध बाकी सभी बन्धों में सबसे श्रेष्ठ है । उड्डीयान बन्ध के सिद्ध होने पर स्वभाविक रूप से मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है ।
मूलबन्ध विधि वर्णन
पार्षि्णभागेन सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद्गुदम् । अपानमूर्ध्वमाकृष्य मूलबन्धोऽभिधीयते ।। 61 ।।
भावार्थ :- पैर की एड़ी से सीवनी प्रदेश अर्थात् अण्डकोश के नीचे के मूल भाग को दबाकर गुदा का आकुञ्चन करना चाहिए । अब अपान वायु को ऊपर की ओर खींचने की क्रिया को ही मूलबन्ध कहते हैं ।
अधोगतिमपानं वै ऊर्ध्वगं कुरुते बलात् । आकुञ्चनेन तं प्राहुर्मूलबन्धं हि योगिन: ।। 62 ।।
भावार्थ :- यह अपान वायु पंच प्राण का ही एक अंग है जिसकी गति सामान्य रूप से नीचे ( गुदा ) की ओर रहती है । उस अपान वायु को बलपूर्वक ऊपर की ओर खींचकर वहीं पर रोकने को योगियों ने मूलबन्ध कहा है ।
गुदं पाष्ण् र्या तु सम्पीड्य योनिमाकुञ्चयेद् बलात् । वारं वारं यथा चोर्ध्वं समायाति समीरण: ।। 63 ।।
भावार्थ :- एड़ी से गुदा को अच्छी तरह से दबाकर अपान वायु को बार- बार बलपूर्वक ऊपर की ओर खींचने से अपान वायु ऊपर की ओर आ जाती है ।
प्राणापानौ नादबिन्दू मूलबन्धेन चैकताम् । गत्वा योगस्य संसिद्धिं यच्छतो नात्र संशय: ।। 64 ।।
भावार्थ :- मूलबन्ध के सिद्ध होने पर प्राण वायु व अपान वायु और अनाहत नाद व वीर्य इन सभी में एकरूपता आ जाती है अर्थात् इनका आपस में मिलन हो जाता है । जिससे साधक का योग सिद्ध हो जाता है । इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं है ।
अपानप्राणयोरैक्यं क्षयो मूत्रपुरीषयो: । युवा भवति वृद्धोऽपि सततं मूलबन्धनात् ।। 65 ।।
भावार्थ :- नियमित रूप से मूलबन्ध का अभ्यास करने से प्राण वायु व अपान वायु में एकरूपता आ जाती है । जिसके फलस्वरूप साधक के शरीर में मल- मूत्र की मात्रा में कमी आ जाती है और वृद्ध व्यक्ति भी युवा हो जाता है ।
अपाने ऊर्ध्वगे जाते प्रयाते वह्निमण्डलम् । तदाऽनलशिखा दीर्घा जायते वायुनाऽऽहता ।। 66 ।।
भावार्थ :- जब अपान वायु को मूलबन्ध के द्वारा ऊपर की ओर खींचा जाता है तो वह ऊपर की ओर बढ़ने लगती है । जैसे ही वह अपान वायु नीचे से ऊपर की ओर बढ़ती हुई जठराग्नि तक पहुँचती है तो उस वायु से प्रेरित होकर साधक की जठराग्नि और भी ज्यादा प्रदीप्त ( मजबूत ) हो जाती है ।
ततो यातो वह्नयपानौ प्राणमुष्णस्वरूपकम् । तेनात्यन्तप्रदीप्तस्तु ज्वलनो देहजस्तथा ।। 67 ।।
भावार्थ :- तब जठराग्नि व अपान वायु की अग्नि बढ़ने से वह शरीर में स्थित प्राण को भी उष्ण ( गर्म ) कर देते हैं । जिससे शरीर में भी अग्नि अत्यंत तीव्र रूप से बढ़ती है ।
तेन कुण्डलिनी सुप्ता सन्तप्ता सम्प्रबुध्यते । दण्डाहता भुजङ्गीव नि:श्वस्य ऋजुतां व्रजेत् ।। 68 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार शरीर में अग्नि के बढ़ने से शरीर में सोई हुई कुण्डलिनी भी जाग्रत अवस्था में आ जाती है । उसके बाद वह उसी प्रकार सीधी हो जाती है जिस प्रकार डण्डे से मार खाने पर सर्प सीधा हो जाता है ।
बिलं प्रविष्टेव ततो ब्रह्ननाड्यन्तरं व्रजेत् । तस्मान्नित्यं मूलबन्ध: कर्तव्यो योगिभि: सदा ।। 69 ।।
भावार्थ :- अब जब कुण्डलिनी जाग्रत अवस्था में आ गई है तब वह ब्रह्मनाड़ी में ठीक वैसे ही प्रवेश कर जाती है जिस प्रकार सर्प बिल में प्रवेश करता है । अतः योगी साधक को नियमित रूप से मूलबन्ध का अभ्यास करना चाहिए ।
जालन्धर बन्ध वर्णन
कण्ठ माकुञ्च्य हृदये स्थापयेच्चिबुकं दृढम् । बन्धो जालन्धराख्योऽयं जरामृत्युविनाशक: ।। 70 ।।
भावार्थ :- कण्ठ प्रदेश को सिकोड़ कर ठुड्डी को छाती पर मजबूती से लगाना जालन्धर बन्ध कहलाता है । इसका अभ्यास करने से साधक बुढ़ापा और मृत्यु से पर विजय प्राप्त कर लेता है ।
बध्नाति हि शिराजालमधोगामिनभोजलम् । ततो जालन्धरो बन्ध: कण्ठदुःखौघनाशन: ।। 71 ।।
भावार्थ :- जालन्धर बन्ध में कण्ठ के सिकुड़ने से वहाँ स्थित सभी नाड़ियों का भी संकोच हो जाता है । जिससे आकाश जल अर्थात् कण्ठ से निकलने वाले अमृत का भी संकोच हो जाता है । इस प्रकार वह अमृत नीचे नहीं टपकता बल्कि वहीं पर रुक जाता है । इस जालन्धर बन्ध के अभ्यास से कण्ठ अर्थात् गले के सभी रोग समाप्त हो जाते हैं ।
जालन्धरे कृते बन्धे कण्ठसंकोचलक्षणे । न पीयूषं पतत्यग्नौ न च वायु: प्रकुप्यति ।। 72 ।।
भावार्थ :- कण्ठ का संकोच अर्थात् सिकुड़ने से जब जालन्धर बन्ध लगता है तो वह कण्ठ से बहने वाला अमृत जठराग्नि तक नहीं पहुँच पाता । जिससे साधक के अन्दर वात का प्रकोप अर्थात् उसका प्रभाव भी नहीं बढ़ता है । इससे वात से सम्बंधित रोग होने की सम्भावना भी कम हो जाती है ।
कण्ठसंकोचनेनैव द्वे नाड्यौ स्तम्भयेद् दृढम् । मध्यचक्रमिदं ज्ञेयं षोडशाधारबन्धनम् ।। 73 ।।
भावार्थ :- कण्ठ के संकोचन अर्थात् जालन्धर बन्ध से इडा व पिङ्गला दोनों ही नाड़ियों को मजबूती से रोका जाता है । इसे मध्य चक्र कहा जाता है । वहीं इस स्थान को विशुद्धि चक्र भी कहते हैं । इसका अभ्यास करने से शरीर के सभी सोलह (16) आधारों पर साधक का नियंत्रण अथवा स्थिरता प्राप्त होती है । विशेष :- यह सोलह आधार निम्न हैं – 1.पाँव का अंगुठा 2.टखना 3.घुटना 4.जंघा 5.सीवनी या योनि प्रदेश 6.लिंग 7.नाभि 8.हृदय 9.गर्दन 10.कण्ठ प्रदेश 11.जीभ 12.नासिका 13.भ्रूमध्य या भौहें 14.ललाट या माथा 15.मूर्धा या माथे का ऊपरी हिस्सा 16.ब्रह्मरन्ध्र अर्थात् सिर का सबसे ऊपरी भाग ।
मूलस्थानं समाकुञ्च्य उड्डियानं तु कारयेत् । इडां च पिङ्गलां बद्ध्वा वाहयेत् पश्चिमे पथि ।। 74 ।।
भावार्थ :- गुदा प्रदेश का आकुंचन अर्थात् गुदा को अन्दर की ओर खींच कर ( मूलबन्ध लगाकर ) उड्डीयान बन्ध का अभ्यास करना चाहिए । इडा व पिङ्गला नाड़ियों को रोककर अर्थात् जालन्धर बन्ध लगाकर प्राणवायु को सुषुम्ना नाड़ी में प्रवाहित करना चाहिए ।
अनेनैव विधानेन प्रयाति पवनो लयम् । ततो न जायते मृत्युर्जरारोगादिकं तथा ।। 75 ।।
भावार्थ :- इस विधि का उपयोग करने से साधक की प्राण शक्ति ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करती है । जिससे अभ्यास करने वाला साधक बुढ़ापे व मृत्यु आदि से सदैव सुरक्षित रहता है ।
बन्धत्रयमिदं श्रेष्ठं महासिद्धैश्च सेवितम् । सर्वेषां हठतन्त्राणां साधनं योगिनो विदुः ।। 76 ।।
भावार्थ :- महान व सिद्ध योगियों द्वारा प्रयोग किए गए उपर्युक्त तीनों बन्धों ( मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध, जालन्धर बन्ध ) को श्रेष्ठ बताया गया है । इनके सिद्ध हो जाने पर साधक की हठयोग की अन्य सभी क्रियाएँ भी सफल हो जाती हैं । एक प्रकार से इन तीनों बन्धों को हठयोग की अन्य क्रियाओं को सिद्ध करने के लिए आधार माना गया है ।
विपरीतकरणी वर्णन
यत्किञ्चित् स्त्रवते चन्द्रादमृतं दिव्यरूपिण: । तत् सर्वं ग्रसते सूर्यस्तेन पिण्डो जरायुत: ।। 77 ।।
भावार्थ :- चन्द्र मण्डल से जिस दिव्य अमृत रस का स्त्राव ( टपकता ) होता है । उसका निरन्तर स्त्राव होने से उस अमृत रस को सूर्य मण्डल भस्म कर देता है । जिसके कारण मनुष्य में बुढ़ापा आता है ।
तत्रास्ति करणं दिव्यं सूर्यस्य मुखवञ्चनम् । गुरुपदेशतो ज्ञेयं न तु शास्त्रार्थकोटिभि: ।। 78 ।।
भावार्थ :- उस दिव्य अमृत रस को सूर्य से बचाने के लिए एकमात्र उपाय गुरु द्वारा बताया गया मार्ग ही है अर्थात् गुरु द्वारा बताए गए उपदेश से ही उसे जाना जा सकता है इसके अलावा उसे करोड़ो शास्त्रों द्वारा भी नहीं जाना जा सकता ।
ऊर्ध्वनाभिरधस्तालुरूर्ध्वं भानुरध: शशी । करणी विपरीताख्या गुरुवाक्येन लभ्यते ।। 79 ।।
भावार्थ :- नाभि प्रदेश से ऊपर सूर्य मण्डल और तालु प्रदेश के नीचे चन्द्र मण्डल स्थित होते हैं । विपरीत करणी मुद्रा में सूर्य नीचे व चन्द्र ऊपर की ओर हो जाते हैं । इस विपरीत करणी नामक मुद्रा को गुरु के निर्देशन में ही सीखना चाहिए ।
नित्यमभ्यासयुक्तस्य जठराग्निविवर्धिनी । आहारो बहुलस्तस्य सम्पाद्य: साधकस्य च । अल्पाहारो यदि भवेदग्निर्दहति तत्क्षणात् ।। 80 ।।
भावार्थ :- जो साधक नियमित रूप से विपरीतकरणी मुद्रा का अभ्यास करते हैं उनकी जठराग्नि बहुत तीव्र हो जाती है । इसलिए उस साधक को साधनाकाल में भोजन अच्छी मात्रा में करना चाहिए । उसे कभी भी भूखे पेट नहीं रहना चाहिए । यदि वह पर्याप्त मात्रा में उचित गुणवत्ता वाला भोजन नहीं करता है तो जठराग्नि की बढ़ी हुई अग्नि साधक के शरीर को जलाने लगती है । अतः विपरीत करणी के अभ्यासी साधको को भोजन उचित मात्रा में करना चाहिए ।
अध: शिरश्चोर्ध्वपाद: क्षणं स्यात् प्रथमे दिने । क्षणाच्च किञ्चिदधिकमभ्यसेच्च दिने दिने ।। 81 ।।
भावार्थ :- आरम्भ में साधक को इस विपरीत करणी मुद्रा का अभ्यास क्षण भर के लिए करना चाहिए । इसके बाद दिन- प्रतिदिन इसके अभ्यास को धीरे- धीरे बढ़ाना चाहिए ।
विपरीत करणी मुद्रा का लाभ
वलितं पलितं चैव षण्मासोर्ध्वं न दृश्यते । याममात्रं तु यो नित्यमभ्यसेत् स तु कालजित् ।। 82 ।।
भावार्थ :- लगातार छ: महीने तक विपरीत करणी मुद्रा का अभ्यास करने से साधक के शरीर में सिकुड़न अर्थात् झुर्रियां नहीं पड़ती व बाल भी सफेद नहीं होते । जो साधक प्रतिदिन ढाई घण्टे ( 2:30 ) तक इसका अभ्यास करता है वह मृत्यु को भी जीत लेता है ।
वज्रोली मुद्रा वर्णन
स्वेच्छया वर्तमानोऽपि योगोक्तैर्नियमैर्विना । वज्रोलीं यो विजानाति स योगी सिद्धिभाजनम् ।। 83 ।।
भावार्थ :- जो भी साधक वज्रोली क्रिया को करना जानता है । वह बिना योग साधना के नियमों का पालन किए भी अपनी मनमर्जी से जीवन को जीते हुए योग साधना में सफलता प्राप्त कर सकता है ।
तत्र वस्तुद्वयं वक्ष्ये दुर्लभं यस्य कस्यचित् । क्षीरं चैकं द्वितीयं तु नाडी च वश्वर्तिनी ।। 84 ।।
भावार्थ :- इस वज्रोली मुद्रा की साधना में मुख्य रूप से दो वस्तुओं को दुर्लभ ( जो कठिनता से प्राप्त होती हैं ) माना गया है । जिनमें पहला है दूध और दूसरी है पूरी तरह से वश में रहने वाली स्त्री । ऊपर वर्णित दोनों वस्तुएं जिसके पास हैं । वह वज्रोली मुद्रा की साधना कर सकता है ।
वज्रोली मुद्रा वर्णन
मेहनेन शनै: सम्यगूर्ध्वाकुञ्चनमभ्यसेत् । पुरुषोप्यथवा नारी वज्रोलीसिद्धिमाप्नुयात् ।। 85 ।।
भावार्थ :- कोई भी स्त्री हो या पुरुष जो भी अपने योनिमण्डल अर्थात् अपने – अपने मूत्र मार्गों से योनिस्थान का आकुञ्चन ( मूलबन्ध वाली अवस्था ) करने का अभ्यास करता है । वह वज्रोली मुद्रा को सिद्ध कर लेता है ।
यत्नतः शस्तनालेन फूत्कारं वज्रकन्दरे । शनै: शनै: प्रकुर्वीत वायुसञ्चारकारणात् ।। 86 ।।
भावार्थ :- धीरे- धीरे प्रयास करते हुए साधक को अपने मूत्र मार्ग में वायु का संचार करने के लिए चिकनी नली के माध्यम से मुहँ द्वारा वायु का प्रवेश करवाने का प्रयास करना चाहिए । ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार भोजन पकाते हुए मन्द पड़ी हुई अग्नि को पुनः प्रज्वलित करने के लिए हम फूंक मारते हैं । विशेष :- एक पतली व चिकनी नली लेकर उसे धीरे- धीरे अपने मूत्र मार्ग में डाले । इसके बाद अपने मुहँ द्वारा उस नली के दूसरे छोर ( ओर ) से वायु को अन्दर की तरफ भेजें । जिससे वायु का संचार आसानी से हो जाए ।
नारीभगे पतद् बिन्दुमभ्यासेनोर्ध्वमाहरेत् । चलितं च निजं बिन्दुमूर्ध्वाकृष्य रक्षयेत् ।। 87 ।।
भावार्थ :- सम्भोग के समय जब पुरुष के वीर्य का स्खलन अर्थात् वीर्यपात आरम्भ होकर स्त्री की योनि में वीर्य गिरता है । उस समय पुरुष को गिरते हुए वीर्य को ऊपर की ओर आकर्षित करके ( मूलबन्ध द्वारा ) वीर्य की रक्षा करनी चाहिए ।
एवं संरक्षयेद् बिन्दुं मृत्युं जयति योगवित् । मरणं बिन्दुंपातेन जीवनं बिन्दुधारणात् ।। 88 ।।
भावार्थ :- वीर्य की हानि अर्थात् वीर्यपात मृत्यु का प्रतीक है और वीर्य की रक्षा जीवन का । अतः जो साधक वीर्य की रक्षा कर लेता है । वह मृत्यु को भी जीत लेता है ।
सुगन्धो योगिनो देहे जायते बिन्दुधारणात् । यावद् बिन्दुं: स्थिरो देहे तावत् कालभयं कुत: ।। 89 ।।
भावार्थ :- बिन्दु अर्थात् वीर्य को सुरक्षित रखने से साधक का शरीर सुगन्ध से युक्त हो जाता है । जब तक साधक के शरीर में वीर्य सुरक्षित रहता है तब तक उसे मृत्यु का भय नहीं रहता ।
वीर्य रक्षा में चित्त की उपयोगिता
चित्तायत्तं नृणां शुक्रं शुक्रायत्तं च जीवितम् । तस्माच्छुक्रं रक्षणीयं योगिभिश्च प्रयत्नत: ।। 90 ।।
भावार्थ :- सभी मनुष्यों का वीर्य सदा उनके चित्त के ही नियंत्रण में होता है । इसलिए साधक को अपने चित्त पर पूर्ण नियंत्रण रखते हुए वीर्य की रक्षा करनी चाहिए । विशेष :- यहाँ इस श्लोक में चित्त के विषय में बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका का वर्णन किया गया है । बहुत सारे व्यक्तियों का मानना है कि वीर्य का पतन व रक्षा दोनों में ही हमारे शरीर का ही योगदान होता है । जबकि यह पूर्ण रूप से हमारे चित्त अथवा मन का विभाग है । वीर्य की रक्षा व पतन दोनों ही हमारे चित्त अथवा मन के द्वारा सम्भव होते हैं । कामुकता और संयम ये दोनों ही चित्त के विषय होते हैं । हमारा शरीर तो मात्र इनकी इच्छा को पूरा करने के लिए साधन के रूप में कार्य करता है । वीर्य को चित्त अथवा मन द्वारा ही पूर्ण रूप से वश में किया जा सकता है । यह बहुत सारे आचार्यों द्वारा उपदेशित व अनुभव किया हुआ प्रमाण है । यहाँ तक की जब कोई पुरुष अत्यंय खूबसूरत स्त्री के साथ सम्भोग आदि क्रिया करता है तो वह अपने वीर्य को चित्त व मन के संयम से ही सुरक्षित रखता है । जिन व्यक्तियों का सम्भोग के दौरान जल्दी वीर्यपात हो जाता है । उसके लिए उनका कमजोर चित्त अथवा मन ही दोषी होता है । जिस साधक ने अपने चित्त अथवा मन के ऊपर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेने पर संसार की कोई भी स्त्री सम्भोग के दौरान उसका वीर्यपात नहीं करवा सकती । चित्त अथवा मन के पूर्ण रूप से नियंत्रण में होने से वह अपने वीर्य का स्वामी बन जाता है । अतः उसकी इच्छा के बिना उसके वीर्य का पतन असम्भव है । इसलिए साधक को अपने चित्त को अपने नियंत्रण में करने के लिए योग साधना की आवश्यक साधनाओं का अभ्यास करना चाहिए ।
ऋतुमत्या: रजोऽप्येवं बीजं विन्दुं च रक्षयेत् । मेढ्रेणाकर्षयेदूर्ध्वं सम्यगभ्यासयोगवित् ।। 91 ।।
भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा के अभ्यास से साधक ऋतुमती स्त्री ( जिस स्त्री को मासिक धर्म आदि नियमित रूप से आते हो ) के रज को जो कि बीज रूप होता है और वीर्य को अपने जननेन्द्रिय ( लिंग ) अंग द्वारा ऊपर की ओर खींचना चाहिए ।
सहजोली वर्णन
सहजोलीश्चामरोलीर्वज्रोल्या एव भेदत: । जले सुभस्म निक्षिप्य दग्धगोमयसम्भवम् ।। 92 ।। वज्रोली मैथुनादूर्ध्वं स्त्रीपुंसो: स्वाङ्गले पनम् । आसीनयो: सुखेनैव मुक्तव्यापारयो: क्षणात् ।। 93 ।।
भावार्थ :- सहजोली व अमरोली वज्रोली मुद्रा के ही दो प्रकार हैं । इनमें सहजोली क्रिया को बताते हुए कहा है कि योगी साधक अथवा साधिका दोनों ही वज्रोली क्रिया करने के बाद जले हुए गोबर की उत्तम भस्म ( राख ) को पानी में मिलाकर अपने- अपने जननेन्द्रियों ( लिंग व योनि ) अंगों पर लेप करके लगाएं । यह क्रिया सहजोली कहलाती है । इसको करने के बाद साधक को कुछ समय तक सुखपूर्वक बैठना चाहिए ।
सहजोलिरियं प्रोक्ता श्रद्धेया योगिभि: सदा । अयं शुभकरो योगो योगिमुक्तिविमुक्तिद: ।। 94 ।।
भावार्थ :- सभी योग अभ्यासों में सहजोली क्रिया को सदैव अत्यन्त शुभकारी अर्थात् अच्छा फल प्रदान करने वाली कहा गया है । यह साधकों को मुक्ति व विशिष्ट मुक्ति प्रदान करवाने वाली होती है ।
अयं योग: पुण्यवतां धीराणां तत्त्वदर्शिनाम् । निर्मत्सराणां सिध्येत न तु मत्सरशालिनाम् ।। 95 ।।
भावार्थ :- इस सहजोली क्रिया का अभ्यास पुण्य अर्थात् धार्मिक, धैर्य से युक्त व तत्त्वज्ञानियों अर्थात् यथार्थज्ञान रखने वाले, ईर्ष्या रहित और तृप्त अथवा शान्त ( जो किसी वस्तु को पाने की इच्छा न रखते हों ) साधकों को ही सिद्ध होता है ।
अमरोली वर्णन
पित्तोल्वणत्वात्प्रथमाम्बुधारां विहाय निस्सारतयान्त्यधाराम् । निषेव्यते शीतलमध्यधारा कापालिके खण्डमतेऽमरोली ।। 96 ।। अमरीं य: पिबेन्नित्यं नस्यं कुर्वन् दिने दिने । वज्रोलीमभ्यसेत् सम्यगमरोलीति कथ्यते ।। 97 ।।
भावार्थ :- मूत्र विसर्जन ( मूत्र त्याग ) के समय मूत्र की पहली धार जिसमें पित्त की मात्रा अधिक होती है व आखिरी धार जो सार रहित होती है इन दोनों को छोड़कर मध्य अर्थात् बीच की धार को पीने का उपदेश सभी खण्ड कापालिकों द्वारा किया गया है । इस क्रिया को अमरोली कहा गया है । नित्य प्रति जो साधक अपनी नासिका के द्वारा अपने ही मूत्र को पीता है और साथ ही वज्रोली मुद्रा का भी अभ्यास करता है । इन दोनों के मिले हुए रूप को ही अमरोली क्रिया कहा जाता है ।
वज्रोली मुद्रा के लाभ
अभ्यासान्नि: सृतां चान्द्रीं विभूत्या सह मिश्रयेत् । धारयेदुत्तमाङ्गेषु दिव्यदृष्टि: प्रजायते ।। 98 ।।
भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने के बाद जो श्वेत स्त्राव अर्थात् सफेद तरल पदार्थ को भस्म ( गोबर के जले हुए अवशेष ) के साथ मिलाकर उसे अपने माथे पर लगाने से साधक को दिव्य दृष्टि की प्राप्ति होती है ।
पुंसो बिन्दुं समाकुञ्च्य सम्यगभ्यासपाटवात् । यदि नारी रजो रक्षेद्वज्रोल्या सापि योगिनी ।। 99 ।। तस्या: किञ्चिद्रजो नाशं न गच्छति न संशय: । तस्या: शरीरनादस्तु बिन्दुतामेव गच्छति ।। 100 ।।
भावार्थ :- अगर कोई महिला योग साधक अच्छी प्रकार से वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करके पुरुष के वीर्य को अपने अन्दर खींच कर अपने रज की रक्षा कर लेती है तो वह योगिनी कहलाती है । इस प्रकार अभ्यास करने से उस योगिनी के थोड़े से भी रज का नाश नहीं होता है । इसमें किसी प्रकार का कोई सन्देह नहीं है जिसके फलस्वरूप उसके शरीर में स्थित नाद भी प्रकाश स्वरूप में उपस्थित हो जाता है ।
स बिन्दुस्तद्रजश्चैव एकीभूय स्वदेहगौ । वज्रोल्यभ्यासयोगेन सर्वसिद्धिं प्रयच्छत: ।। 101 ।।
भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा के अभ्यास से अपने शरीर में स्थित वीर्य और रज का एक दूसरे के साथ मिलन होने पर योगी साधक को सभी प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।
रक्षेदाकुञ्चनादूर्ध्वं या रज: सा हि योगिनी । अतीतानागतं वेत्ति खेचरी च भवेद् ध्रुवम् ।। 102 ।।
भावार्थ :- जो महिला योग साधक आकुञ्चन प्रक्रिया ( अन्दर की ओर खींचना ) के द्वारा अपने रज को ऊर्ध्वगामी कर लेती है अर्थात् अपने रज को ऊपर की ओर खींच लेती है । वह निश्चित तौर से योगिनी होती है । उसे भूतकाल व भविष्य काल का ज्ञान हो जाता है । इसके अतिरिक्त उसे आकाश गमन की सिद्धि भी प्राप्त हो जाती है ।
देहसिद्धिं च लभते वज्रोल्यभ्यासयोगत: । अयं पुण्यकरो योगो भोगेभुक्तेऽपि मुक्तिद: ।। 103 ।।
भावार्थ :- वज्रोली मुद्रा के अभ्यास से साधक का शरीर अनेक सिद्धियों से युक्त हो जाता है । इस वज्रोली मुद्रा का अभ्यास करने से भोग युक्त जीवन जीने वाले व्यक्तियों को भी मुक्ति मिल जाती है ।
शक्तिचालन मुद्रा वर्णन
कुटिलाङ्गी कुण्डलिनी भुजङ्गी शक्तिरीश्वरी । कुण्डल्यरुन्धती चैते शब्दा: पर्यायवाचका: ।। 104 ।।
भावार्थ :- कुटिलाङ्गी, कुण्डलिनी, भुजङ्गी, शक्ति, ईश्वरी, कुण्डली और अरुन्धती इन सभी शब्दों का एक ही अर्थ होता है अर्थात् यह सभी एक ही शब्द ( कुण्डलिनी ) के पर्यायवाची हैं । जहाँ- जहाँ पर भी इन शब्दों का प्रयोग किया गया है । वहाँ पर उसका अर्थ यही ( कुण्डलिनी ) होगा । विशेष :- इस श्लोक में कुण्डलिनी के सभी पर्यायवाची शब्दों को बताया गया है ।
उद्घाटयेत् कपाटं तु यथा किञ्चिकया हठात् । कुण्डलिन्या तथा योगी मोक्षद्वारं विभेदयेत् ।। 105 ।।
भावार्थ :- जिस प्रकार चाबी के द्वारा बन्द द्वार ( दरवाजे ) को बिना किसी प्रकार की मेहनत के आसानी से खोल दिया जाता है । ठीक उसी प्रकार योगी बिना किसी ज्यादा प्रयास के कुण्डलिनी शक्ति के द्वारा मोक्ष के द्वार को खोल लेते हैं ।
येन मार्गेण गन्तव्यं ब्रह्मस्थानं निरामयम् । मुखेनाच्छाद्य तद् द्वारं प्रसुप्ता परमेश्वरी ।। 106 ।।
भावार्थ :- जो मार्ग ( रास्ता ) सभी प्रकार के कष्टों से रहित होकर ब्रह्मस्थान तक पहुँचता है । उस मार्ग के द्वार ( दरवाजे ) को बन्द करके कुण्डलिनी शक्ति सोई हुई है ।
कन्दोर्ध्वं कुण्डलीशक्ति: सुप्ता मोक्षाय योगिनाम् । बन्धनाय च मूढानां यस्तां वेत्ति स योगवित् ।। 107 ।।
भावार्थ :- कन्द ( कुण्डलिनी का स्थान ) के ऊपर कुण्डलिनी शक्ति सुप्त अवस्था अर्थात् निष्क्रिय रूप में पड़ी हुई है । उस कुण्डलिनी शक्ति की साधना करके ही साधक मोक्ष को प्राप्त करता है । लेकिन जो मूढ अर्थात् कम बुद्धि वाले लोग हैं उन सबके लिए तो यह बन्धन का कारण होती है । योग साधना को जानने वाला साधक ही इसकी उपयोगिता को जानता है ।
कुण्डली कुटिलाकारा सर्पवत् परिकीर्तिता । सा शक्तिश्चालिता येन स मुक्तो नात्र संशय: ।। 108 ।।
भावार्थ :- यह कुण्डलिनी शक्ति सर्प की भाँति टेढ़ी- मेढ़ी आकृति वाली होती है अर्थात् जिस प्रकार साँप टेढ़ा- मेढ़ा होता है ठीक उसी प्रकार इस कुण्डलिनी की आकृति भी वैसी ही होती है । जो योग साधक इस कुण्डलिनी शक्ति को क्रियाशील ( जागृत अवस्था ) कर लेता है । नि: सन्देह वह मुक्त हो जाता है ।
गङ्गायमुनयोर्मध्ये बाल रण्डां तपस्विनीम् । बलात्कारेण गृह् णीयात् तद्विष्णो: परमं पदम् ।। 109 ।।
भावार्थ :- गंगा अर्थात् चन्द्र नाड़ी व यमुना अर्थात् सूर्य नाड़ी के बीच में तपस्विनी बालरण्डा अर्थात् कुण्डलिनी स्थित है । साधक को इस कुण्डलिनी शक्ति को पूरे प्रयत्न के साथ क्रियाशील करना चाहिए । यही विष्णु के परमपद अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करवाने वाली शक्ति है ।
इडा भगवती गङ्गा पिङ्गला यमुना नदी । इडापिङ्गलयोर्मध्ये बालरण्डा च कुण्डली ।। 110 ।।
भावार्थ :- इडा नाड़ी अर्थात् चन्द्र नाड़ी को भगवती गंगा नदी व पिङ्गला अर्थात् सूर्य नाड़ी को यमुना नदी कहते हैं । इन दोनों नाड़ियों के बीच में बालरण्डा अर्थात् सुषुम्ना नाड़ी स्थित है । जिसे कुण्डलिनी कहा जाता है ।
पुच्छे प्रगृह्य भुजगीं सुप्ता मुद् बोधयेच्च ताम् । निद्रां विहाय सा शक्तिरूर्ध्वमुत्तिष्ठते हठात् ।। 111 ।।
भावार्थ :- सोई हुई प्राणशक्ति या निष्क्रिय पड़ी हुई कुण्डलिनी शक्ति को पूंछ पकड़कर जगाना चाहिए । जिस प्रकार सोए हुए साँप को जगाते हैं । इस प्रकार उसे जगाने से वह सहज रूप से ही जागृत होकर ठीक उसी प्रकार ऊपर की ओर उठती है जिस प्रकार साँप जागने के बाद उठता है ।
कुण्डलिनी को जगाने की विधि
अवस्थिता चैव फणावती सा प्रातश्च सायं प्रहरार्धमात्रम् । प्रपूर्ये सूर्यात् परिधानयुक्त्या प्रगृह्य नित्यं परिचालनीया ।। 112 ।।
भावार्थ :- मूलाधार में स्थित उस सोई हुई कुण्डलिनी शक्ति को आधे पहर ( डेढ़ घण्टे ) तक दायीं नासिका से पूरक ( श्वास ग्रहण करते हुए ) करते हुए विधिपूर्वक जगाना चाहिए ।
ऊर्ध्वं वितस्तिमात्रं तु विस्तारं चतुरङ्गुलम् । मृदुलं धवलं प्रोक्तं वेष्टिताम्बरलक्षणम् ।। 113 ।।
भावार्थ :- कन्द के लक्षण बताते हुए कहा है कि मूल स्थान से एक बित्ता अर्थात् हाथ को पूरा खोलने पर अंगूठे से लेकर सबसे छोटी अंगुली तक की जितनी दूरी होती है उसे एक बित्ता कहते हैं । यह लगभग नौ ( 9 ) इंच का होता है । चौड़ाई में चार अंगुल चौड़ा अर्थात् लगभग तीन ( 3 ) इंच चौड़ा होता है । साथ ही वह कोमल, स्वच्छ व सफेद वस्त्र में लिपटे हुए के समान होता है । अतः मूल स्थान से एक हाथ ऊपर, चार अंगुल चौड़े, स्वच्छ, कोमल व सफेद वस्त्र में लिपटे हुए के समान कन्द का लक्षण बताया गया है ।
सति वज्रासने पादौ कराभ्यां धारयेद् दृढम् । गुल्फदेशसमीपे च कन्दं तत्र प्रपीडयेत् ।। 114 ।।
भावार्थ :- वज्रासन में बैठकर दोनों हाथों से अपने दोनों पैरों के टखनों को मजबूती के साथ पकड़े और एड़ियों से कन्द प्रदेश को जोर ( पूरे दबाव ) से दबाएं ।
वज्रासने स्थितो योगी चालयित्वा च कुण्डलीम् । कुर्यादनन्तरं भस्त्रां कुण्डलीमाशु बोधयेत् ।। 115 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार वज्रासन में स्थित होकर ( बैठकर ) साधक कुण्डलिनी को चलाए । इसके बाद भस्त्रिका प्राणायाम करे । ऐसा करने से कुण्डलिनी शीघ्र ( जल्दी ) जागृत हो जाती है ।
भानोराकुञ्चनं कुर्यात् कुण्डलीं चालयेत्तत: । मृत्युवक्त्रगतस्यापि तस्य मृत्युभयं कुत: ।। 116 ।।
भावार्थ :- एक बार फिर से पिङ्गला नाड़ी अर्थात् सूर्य स्वर ( दायीं नासिका ) से पूरक ( श्वास लेते हुए ) करते हुए कुण्डलिनी को चलाएं । ऐसा करने पर मृत्यु के निकट होने पर भी साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता ।
मुहूर्तद्वयपर्यन्तं निर्भयं चालनादसौ । ऊर्ध्वमाकृष्यते किञ्चित् सुषुम्नायां समुद्गता ।। 117 ।।
भावार्थ :- साधक को भय से रहित होकर दो मुहूर्त अर्थात् एक घण्टा छत्तीस मिनट तक कुण्डलिनी का संचालन करना चाहिए । इससे वह प्राण शक्ति कुछ ऊपर की ओर उठकर सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश कर जाती है । विशेष :- एक मुहूर्त दो घड़ी का होता है तो दो मुहूर्त का अर्थ है चार घड़ी । इनमें एक घड़ी चौबीस ( 24 ) मिनट की होती है । अतः कुल चार घड़ी हुई और चार घड़ी का कुल समय ( 4×24= 96 मिनट ) एक घण्टा छत्तीस मिनट हुआ ।
तेन कुण्डलिनी तस्या: सुषुम्नायां मुखं ध्रुवम् । जहाति तस्मात् प्राणोऽयं सुषुम्नां व्रजति स्वत: ।। 118 ।।
भावार्थ :- इसके परिणामा स्वरूप वह कुण्डलिनी शक्ति जो सुषुम्ना नाड़ी के मुख को ढकें रखती है । वह सुषुम्ना नाड़ी के मुहँ को निश्चित रूप से छोड़ देती है । जिससे साधक के प्राण का प्रवाह बिना किसी रुकावट के सुषुम्ना नाड़ी में स्वयं ही प्रवेश कर जाता है ।
शक्ति चालन मुद्रा के लाभ
तस्मात् सञ्चालयेन्नित्यं सुख सुप्ता मरुन्धतीम् । तस्या: सञ्चालनेनैव योगी रोगै: प्रमुच्यते ।। 119 ।।
भावार्थ :- इसलिए योगी साधक को नियमित रूप से उस सोई हुई अरुन्धती अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति का संचालन ( उसको चलाना ) करना चाहिए । केवल उसके संचालन मात्र से ही साधक के सभी रोग दूर हो जाते हैं ।
येन सञ्चालिता शक्ति: स योगी सिद्धिभाजनम् । किमत्र बहुनोक्तेन कालं जयति लीलया ।। 120 ।।
भावार्थ :- जिस भी साधक ने इस कुण्डलिनी शक्ति का संचालन करना आ गया । उसे सभी प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । इस विषय में और क्या कहना ? इसमें तो साधक मृत्यु पर भी बड़ी आसानी से जीत प्राप्त कर लेता है ।
ब्रह्मचर्यरतस्यैव नित्यं हितमिताशन: । मण्डलाद् दृश्यते सिद्धि: कुण्डल्यभ्यासयोगिन: ।। 121 ।।
भावार्थ :- जो भी योग साधक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करता है, शीघ्रता से पचने वाला हितकारी आहार ग्रहण करता है और कुण्डलिनी को चलाता है उसे एक मण्डल अर्थात् चालीस ( 40 ) दिनों में ही सिद्धि प्राप्त हो जाती है ।
कुण्डलीं चालयित्वा तु भस्त्रां कुर्याद्विशेषत: । एवमभ्यसतो नित्यं यमिनो यमभी: कुत: ।। 122 ।।
भावार्थ :- कुण्डलिनी को चलाते समय भस्त्रिका प्राणायाम को विशेष रूप से करना चाहिए । इस प्रकार नियमित रूप से कुण्डलिनी चलाते हुए भस्त्रिका प्राणायाम का अभ्यास करने से योगी को मृत्यु के देवता अर्थात् यमराज का भय कैसा ? ऊपर वर्णित श्लोक में कहा गया है कि जब योगी इस विधि का नियमित रूप से पालन करता है तो उसे मृत्यु का भी भय नहीं रहता ।
बहत्तर हजार ( 72000 ) नाड़ियों की शुद्धि
द्वासप्ततिसहस्त्राणां नाडीनां मलशोधने । कुत: प्रक्षालनोपाय: कुण्डल्यभ्यसनादृते ।। 123 ।।
भावार्थ :- कुण्डलिनी शक्ति के अभ्यास के बिना शरीर में स्थित बहत्तर हजार ( 72000 ) नाड़ियों के मल अर्थात् अशुद्धि को दूर करने का कोई दूसरा तरीका कहाँ है ? इसका अर्थ है कि सभी नाड़ियों को शुद्ध करने का एकमात्र उपाय कुण्डलिनी शक्ति ही है अन्य कोई नहीं ।
इयं तु मध्यमा नाडी दृढाभ्यासेन योगिनाम् । आसनप्राणसंयाम मुद्राभि: सरला भवेत् ।। 124 ।।
भावार्थ :- योगियों द्वारा किए गए आसन, प्राणायाम व मुद्राओं के दृढ़ अभ्यास से ही सुषुम्ना नाड़ी ऊर्ध्वगमन के लिए उपयुक्त अथवा सरल हो जाती है ।
अभ्यासे तु विनिद्राणां मनो धृत्वा समाधिना । रुद्राणी वा परा मुद्रा भद्रां सिद्धिं प्रयच्छति ।। 125 ।।
भावार्थ :- जो साधक पूरी सजगता अथवा जागरूकता के साथ योग का अभ्यास करते हैं । वह समाधि के द्वारा अपने मन को एक जगह पर स्थिर करके शाम्भवी मुद्रा या कल्याण करने वाली सिद्धियों को प्राप्त कर लेते हैं ।
राजयोग की उपयोगिता
राजयोगं विना पृथ्वी राजयोगं विना निशा । राजयोगं विना मुद्रा विचित्रापि न शोभते ।। 126 ।।
भावार्थ :- राजयोग के बिना सम्पूर्ण सुखों से भरी इस पृथ्वी का कोई प्रयोजन नहीं, न ही बिना राजयोग के रात्रि का कोई औचित्य है और बिना राजयोग के अनेक प्रकार की मुद्राएं भी शोभा नहीं देती हैं । विशेष :- इस श्लोक में राजयोग की उपयोगिता को दर्शाया गया है कि किस प्रकार राजयोग के बिना बाकी के सभी साधनों का कोई महत्त्व नहीं है ।
मारुत्स्य विधिं सर्वं मनोयुक्तं समभ्यसेत् । इतरत्र न कर्तव्या मनोवृत्तिर्मनीषिणा ।। 127 ।।
भावार्थ :- इस प्रकार आदिनाथ शिव यहाँ पर दस मुद्राओं का उल्लेख किया है । इनमें से प्रत्येक मुद्रा योगी साधक को बड़ी- बड़ी सिद्धियाँ प्रदान करने का सामर्थ्य रखती हैं ।
इति मुद्रा दश प्रोक्ता आदिनाथेन शम्भुना । एकैका तासु यमिनां महासिद्धि प्रदायिनी ।। 128 ।।
भावार्थ :- एक बार फिर से पिङ्गला नाड़ी अर्थात् सूर्य स्वर ( दायीं नासिका ) से पूरक ( श्वास लेते हुए ) करते हुए कुण्डलिनी को चलाएं । ऐसा करने पर मृत्यु के निकट होने पर भी साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता ।
उपदेशं हि मुद्राणां यो दत्ते साम्प्रदायिकम् । स एव श्रीगुरु: स्वामी साक्षादीश्वर एव स: ।। 129 ।।
भावार्थ :- जो भी योगी नाथ परम्परा में उपदेशित इन मुद्राओं का ज्ञान देता है । वही आदरणीय गुरु, स्वामी एवं वही साक्षात ईश्वर के समान होता है ।
तस्य वाक्यपरो भूत्वा मुद्राभ्यासे समाहित: । अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते कालवञ्चनम् ।। 130 ।।
भावार्थ :- जो योगी साधक गुरु द्वारा उपदेशित इन मुद्राओं का अभ्यास पूरी एकाग्रता से करता है । वही अणिमा आदि सिद्धियों को प्राप्त करके मृत्यु पर भी विजय प्राप्त कर लेता है ।
।। इति श्री सहजानन्द सन्तानचिंतामणि स्वात्मारामयोगीन्द्रविरचितायां हठप्रदीपिकायां मुद्राविधानं नाम तृतीयोयोपदेश: ।।
भावार्थ :- इस प्रकार यह श्री सहजानन्द परम्परा के महान अनुयायी योगी स्वात्माराम द्वारा रचित हठप्रदीपिका ग्रन्थ में मुद्राओं की विधि बताने वाला तीसरा उपदेश पूर्ण हुआ ।
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